डिस्लेक्सिया में परवरिश के तरीके और एक सफल परवरिश की कहानी

नमस्कार आज एक बार फिर हम आप लोगों के साथ अपने विचार साझा करने आए हैं अपने पिछले लेख में आप लोगों से डिस्लेक्सिया के बारे में बात की थी। आज हम ये कहना चाहते है की जिन बच्चों को डिस्लेक्सिया हैं उन्हें बिल्कुल उदास होने की जरुरत नहीं हैं वे बस अपनी परवरिश के तरीकों में थोड़ा सा बदलाव करके अपने बच्चे को सफल बना सकते हैं अब आप लोग समझ गए होंगे की आज हम डिस्लेक्सिया में परवरिश के तरीकों के बारे में बात करेंगे लेकिन इस लेख को शुरू करने से पहले हम फिर एक बार अपनी बात को दोहराते हैं – अलग होने का मतलब गलत होना कतई नहीं हैं।
परवरिश के तरीकों के विषय में बात करने से पहले हमारा ये जानना जरूरी हैं कि हम ये जाने कि हमारे देश में इस बीमारी से पीड़ित बच्चों कि संख्या कितनी हैं-
भारत में डिस्लेक्सिया पीड़ित बच्चों की संख्या- हमारे देश में इस बीमरी से पीड़ित बच्चों के लिए काम करने वाली प्रतिष्ठित संस्था डिस्लेक्सिया एसोसिएशन ऑफ इंडिया का अनुमान है कि देश में लगभग 10 से 15 प्रतिशत स्कूली बच्चे किसी न किसी प्रकार के डिस्लेक्सिया से ग्रस्त है। हमारा देश बहुभाषी हैं जो डिस्लेक्सिया पीड़ित बच्चों के लिए परिस्थितियों को और कठिन बनाता हैं।
डिस्लेक्सिया और परवरिश के तरीके- प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को सर्वश्रेष्ठ परवरिश देने का प्रयास करते हैं बच्चे की परवरिश करना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य हैं पर ये कार्य और भी जटिल हो जाता हैं जब बच्चे को डिस्लेक्सिया होता हैं माता पिता अक्सर इस बीमारी से पीड़ित बच्चों को लेकर चिंतित हो जाते हैं उन्हें लगने लगता हैं की उनका बच्चा कुछ कर नहीं सकता हैं लेकिन ऐसा कतई नहीं हैं वे अपने परवरिश के तरीको में कुछ बदलाव करके अपने बच्चे को एक सुन्दर भविष्य दे सकते है। अब हम बात करेंगे कुछ तरीको के बारे में जिनको अपनी परवरिश में शामिल करके माता पिता डिस्लेक्सिया पीड़ित बच्चे को एक बेहतरीन जीवन दे सकते हैं-
• बच्चे के साथ सकारात्मक तरीके से संवाद करें और धैर्य रखें. ऐसे बच्चों को चीजों को समझने में समय लगता है।
• डिस्लेक्सिक बच्चे अधिक जिज्ञासु होते हैं. इसलिए, उन्हें तार्किक जवाब देना जरूरी है. उनके संदेह दूर करने में उनकी मदद करे।
• टाइम टेबल के हिसाब से पढ़ाने से उन्हें विषयों को समझने में मदद मिल सकती हैं।
• ऐसे बच्चे को शिक्षा देने के लिए तकनीक की सहायता लेनी चाहिए जिससे वे जल्दी सीख सके।
• घर और विद्यालय में उनके लिए एक अच्छा माहौल रखे।
• उन्हें निरंतर प्रोत्साहित करे ।
• बच्चे के साथ बातचीत करे इससे उनका शब्द ज्ञान सशक्त होता है।
• बच्चे के साथ किताब ऊँची आवाज़ में पढ़े इससे वे अक्षरों को धीरे -धीरे पहचान सके तथा इसका निरंतर अभ्यास करते रहे।
• सदैव इस बात का ध्यान रखे कीइन बच्चों की बौद्धिक शक्ति कही से भी कम नहीं होती है।
• अपने बच्चे के अंदर के विशेष गुण को पहचाने और उसे निखारने में मदद करे।
• इन सारी बातों को अपनी परवरिश में शामिल करके आप अपने बच्चे के सुन्दर भविष्य की नीव रख सकते हैं।
अब एक सच्ची कहानी जहाँ सफल परवरिश और मज़बूत इच्छाशक्ति ने एक डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चे का जीवन बदला
कहानी स्वप्निल तिवारी की – लखनऊ में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे स्वप्निल को डिस्लेक्सिया का पता तब चला जब वह सिर्फ सात साल के थे। उनका बचपन बहुत ही दर्द भरा था। वे बाकी बच्चों के साथ न तो खेल सकते थे और न ही सही से अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे पाते थे वे बताते हैं,कि वे बचपन में बेहद बेचैन रहा करते थे । क्रिकेट खेलते समय गेंद को सही दिशा में फेंकना काफी मुश्किल होता था। शब्दों को एक साथ जोड़ना और एक पूरा वाक्य पढ़ना एक बुरे सपने के जैसा था। उनकी तकलीफों को बढ़ाने के लिए मेरे सहपाठी उन्हें ताने देते थे और उन्हें पागल कहते थे। स्वप्निल जब इस कठिन दौर से गुजरने में कामयाब हुए, तो उनके जीवन में एक और बड़ा झटका लगा। जब वे सिर्फ 12 साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इस घटना ने उन्हें काफी हद तक प्रभावित किया। वे परेशान रहने लगे और रात में भी उनको नींद नहीं आती थी। सोने के लिए वे नींद की गोलियां लेने लगे। स्थिति ये हो गई थी कि उन्हें नींद की गोलियां एक साथ खाकर अपना जीवन समाप्त करने का ख्याल आया। लेकिन उनका मन बदला और उन्होंने खुद को अपनी माँ और अपने लिए एक मौका देने का निर्णय किया उनकी माँ ने हमेशा उनका साथ दिया और उन पर विश्वास किया और अपनी माँ के अथक प्रयास और अपनी हिम्मत के दम पर स्वप्निल ने आज अपने लिए अलग मुकाम बना लिया। स्वप्निल ने न केवल अपना जीवन संवारा, बल्कि अपने आस-पास के लोगों को भी खुश करने का प्रयास किया। आज उनकी उम्र 31 हो गई है और वे भारत के युवा विकलांग सामाजिक सुधारकों में से एक है। बैंकिंग क्षेत्र में अपनी नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने उद्यमिता के माध्यम से बुरी स्थिति से गुजर रहे लोगों की जिंदगी बदलने का काम किया। उन्होंने ‘लिवमेड’ (Livemad) नाम से एक अभियान की शुरुआत की स्वप्निल ने जयपुरिया इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से एमबीए की पढ़ाई की। इसके बाद उन्हें बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी मिल गई। वहां से वे रिजर्व बैंक में गए और वहां भी कुछ दिनों तक काम किया। लेकिन इस काम से उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी। वे कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे कि लोगों का भला हो सके।इन्होने मधुबनी कलाकारों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए एक पहल शुरू की एक पहल शुरू की जिसका नाम ‘नेकेड कलर्स’ Naked Colours था। इसका उद्देश्य कारीगरों द्वारा बनाई गई कला और शिल्प को कॉर्पोरेट गिफ्टिंग मार्केट से जोड़कर बेचना था। बिजनेस मॉडल ऐसा था कि कुल मुनाफे का एक तिहाई कारीगरों को दिया जाता था, एक-तिहाई का उपयोग कंपनी को बनाए रखने के लिए किया जाता था, और शेष अनाथों और अलग-अलग बच्चों को दान कर दिया जाता था।’ इस पहल से मधुबनी के अलावा तंजावुर और गोंड के कारीगरों को भी लाभ हुआ I अपनी जिंदगी में कई सारी मुश्किलों को झेलने के बावजूद स्वप्निल ने लोगों की मदद करने का काम जारी रखा। उन्होंने कई लोगों को आत्महत्या करने से रोका। इसके साथ ही वे मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ एड्स रोकने पर काम कर रहे हैं। इन्हीं कामों की वजह से उन्हें फोर्ब्स की ‘1000 World Leaders for Hope’ लिस्ट में जगह मिली। उन्हें 2018 में यूनेस्को का एम्बैस्डर भी चुना गया। उत्तर प्रदेश और ओडिशा सरकारों ने उन्हें 2018 में राज्य शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया। स्वप्निल आज कई लोगों के लिए प्रेरणा हैं।
Written by: Noopur Chauhan, Kanpur, Jr. Editor, Ability India
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