आटिज्म – एक परिचय …
बच्चे भगवान की बनायीं सबसे निश्छल रचना ,उनकी मासूमियत हज़ार दुखों में भी खुश रहने का बहाना ढूँढ लेती है कहते हैं माता – पिता बनना सौभाग्य की बात है एक बच्चे के दुनिया में आने पर उसके माता- पिता के साथ साथ उनके परिवार का हर शख्स खुश होता है और वो परिवार अपनी ख़ुशी में खुद से जुड़े हर व्यक्ति को शामिल करता है आप अक्सर देखते है एक बच्चे के आने से पूरा एक समाज खुश होता है लेकिन जब कोई बच्चा स्पेशली ऐबेलड होता है तो समाज आशीर्वाद और दुआओं की जगह सिर्फ कटाक्ष और उपहास लेकर आता है क्यूंकि हमारे इक्कीसवी सदी में पहुँचने के बाद भी लोगों की सोच नहीं बदली हैं वे आज भी ये मानना नहीं चाहते हैं कि बच्चे का मानसिक या शारीरिक रूप से स्पेशली ऐबेलड होना पाप नहीं है हम सबको समाज की इस सोच को बदलने के लिए निरंतर प्रयास करना होगा और ये समझाना होगा कि हर बच्चा समान स्नेह और आशीर्वाद का हक़दार हैं आज मैं अपने लेख के आरम्भ में अपनी बात को दोहराना चाहूंगी कि किसी बच्चे के अलग होने का मतलब गलत होना नहीं है आज के इस लेख में हम ऑटिज़्म के विषय में बात करेंगे-
ऑटिज़्म (Autism) को चिकित्सीय भाषा में ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसॉर्डर (autism spectrum disorder) कहते हैं। इसे हिंदी में स्वलीनता के नाम से जाना जाता है ऑटिज्म या ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर एक विकास सम्बन्धी अक्षमता हैं जो किसी व्यक्ति की कम्युनिकेट करने और खुद को व्यक्त करने की क्षमता, दूसरों के व्यवहार और अभिव्यक्ति को समझ को प्रभावित करती है और सामाजिक कौशल को प्रभावित करती है। इस स्थिति से पीड़ित लोगों को व्यक्तियों और सामान्य रूप से समाज के साथ बातचीत करने में परेशानी होती है।
वे सामान्य रूप से शब्दों या कार्यों के माध्यम से खुद को व्यक्त नहीं कर सकते हैं, और अक्सर असामान्य रेपेटिटिव व्यवहार विकसित करते हैं। इसे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह किसी एक स्थिति को नहीं दर्शाता है बल्कि वास्तव में विभिन्न स्थितियों के लिए एक शब्द है।
ऑटिज्म को एक न्यूरो बिहेवियरल कंडीशन के रूप में भी परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है कि यह एक व्यवहार सम्बन्धी डिसऑर्डर है जो मस्तिष्क की भावनाओं और समझ को संसाधित करने में असमर्थता के कारण होता है।
ऑटिज़्म के कारक –
वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पुष्टि की है कि ऑटिज़्म, मस्तिष्क के असामान्य कामकाज और विचारों, अभिव्यक्ति और व्यवहार को संसाधित करने की अक्षमता का परिणाम है।
विभिन्न स्टडीज़ में कहा गया गया है कि यह डिसऑर्डर कुछ अनुवांशिक और पर्यावरणीय कारणों से होता है। जो कि गर्भ में पल रहे बच्चे के दिमाग के विकास को बाधित करते हैं। जैसे-
• दिमाग के विकास को नियंत्रित करने वाले जीन में कोई गड़बड़ी होना
• सेल्स और दिमाग के बीच सम्पर्क बनाने वाले जीन में गड़बड़ी होना
• गर्भावस्था में वायरल इंफेक्शन या हवा में फैले प्रदूषण कणों के सम्पर्क में आना
इन कारको के अतिरिक्त कुछ करक ऐसे होते है जो बच्चों में आटिज्म होने के जोखिम को बढ़ा देते हैं-
• ऐसे माता-पिता के बच्चे जिनका पहले से कोई बच्चा ऑटिज्म का शिकार हो
• समय से पहले पैदा होने वाले यानि प्रीमैच्योर बच्चे
• जन्म के समय कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चे
• उम्रदराज़ माता-पिता के बच्चे
• जेनेटिक/ क्रोमोसोमल कंडीशन जैसे, ट्यूबरस स्केलेरोसिस या फ्रेज़ाइल एक्स सिंड्रोम
• प्रेगनेंसी के दौरान खायी गयीं कुछ दवाइयों का साइड-इफेक्ट
ऑटिज़्म के लक्षण-
बीमारी के लक्षण बच्चों में १२-१८ महीने की उम्र से दिखने लगते है।किसी बच्चे में ये सामान्य होते है तो किसी में गंभीर होते है। ये लक्षण और समस्याएं पूरा जीवन बने रह सकते हैं लेकिन इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि इस बीमारी से ग्रसित बच्चे जीवन में कुछ कर नहीं सकते हैं उन्हें अगर सही इलाज और प्रशिक्षण मिले तो वे भी आत्म-निर्भर हो जाते हैं और इसके लिए सबसे आवश्यक है सही समय पर इस बीमारी के लक्षणों को पहचानना। इस बीमारी के सामान्य बीमारियों कि तरह बुखार, खांसी जैसे लक्षण नहीं होते है इस बीमारी के होने पर बच्चों में विकास के सामान्य लक्षण दिखाई नहीं देते है।
अगर ३ वर्ष तक के किसी बच्चे को ऑटिज़्म हो तो तो वे विकास के ये लक्षण प्रदर्शित नहीं करेगा –
• इक्का-दुक्का शब्द बार-बार बोलना या बड़बड़ाना
• किसी चीज़ की तरफ इशारा करना
• मां की आवाज़ सुनकर मुस्कुराना या उसे प्रतिक्रिया देना
• हाथों के बल चलकर दूसरों के पास जाना
• आंखों में आंखें मिलाकर ना देखना या आई-कॉन्टैक्ट ना बनाना
६ माह से लेकर ३ वर्ष के बच्चों में आटिज्म के लक्षण निम्न लिखित हैं-
• 9 महीने की उम्र के बाद भी नाम पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। नवजात शिशु के चेहरे के भाव जैसे उदास, खुश, हैरान और गुस्से में भी कमजोर होते हैं।
• सामाजिक रूप से इंटरैक्टिव गतिविधियों के साथ कमजोर इशारों जैसे जन्म के 1 वर्ष के बाद भी साधारण इंटरेक्टिव गेम खेलना।
• 15-18 महीने की उम्र तक अपने आस-पास होने वाली किसी भी चीज़ के बारे में उंगलियों को इंगित करने या उसके बारे में उत्सुकता रखने जैसी सामाजिक बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं है।
• 24-36 की उम्र तक दूसरों की भावनाओं और इमोशंस को समझने में परेशानी।
३ वर्ष से अधिक के बच्चों मे आटिज्म के लक्षण निम्नलिखित है –
• दूसरे बच्चों से घुलने-मिलने से बचना
• अकेले रहना
• खेल-कूद में हिस्सा ना लेना या रूचि ना दिखाना
• किसी एक जगह पर घंटों अकेले या चुपचाप बैठना, किसी एक ही वस्तु पर ध्यान देना या कोई एक ही काम को बार-बार करना
• दूसरों से सम्पर्क ना करना
• अलग तरीके से बात करना जैसे प्यास लगने पर ‘मुझे पानी पीना है’ कहने की बजाय ‘क्या तुम पानी पीओगे’ कहना
• बातचीत के दौरान दूसरे व्यक्ति के हर शब्द को दोहराना
• सनकी व्यवहार करना
• किसी भी एक काम या सामान के साथ पूरी तरह व्यस्त रहना
• खुद को चोट लगाना या नुकसान पहुंचाने के प्रयास करना
• गुस्सैल, बदहवास, बेचैन, अशांत और तोड़-फोड़ मचाने जैसा व्यवहार करना
• किसी काम को लगातार करते रहना जैसे, झूमना या ताली बजाना
• एक ही वाक्य लगातार दोहराते रहना
• दूसरे व्यक्तियों की भावनाओं को ना समझ पाना
• दूसरों की पसंद-नापसंद को ना समझ पाना
• किसी विशेष प्रकार की आवाज़, स्वाद और गंध के प्रति अजीब प्रतिक्रिया देना
• पुरानी कौशल को भूल जाना
ऑटिज्म (स्वलीनता) के विभिन्न प्रकार –
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ऑटिज्म के तीन प्रकार हैं –
1.ऑटिस्टिक डिसॉर्डर (क्लासिक ऑटिज़्म): यह ऑटिज़्म का सबसे आम प्रकार है। जो लोग ऑटिज्म के इस डिसॉर्डर से प्रभावित होते हैं उन्हें सामाजिक व्यवहार में और अन्य लोगों से बातचीत करने में मुश्किलें होती हैं। साथ ही असामान्य चीज़ों में रूचि होना, असामान्य व्यवहार करना, बोतले समय अटकना, हकलाना या रूक-रूक कर बोलने जैसी आदतें भी ऑटिस्टिक डिसॉर्डर के लक्षण हो सकते हैं। वहीं, कुछ मामलों में बौद्धिक क्षमता में कमी भी देखी जाती है।
2.अस्पेर्गेर सिंड्रोम: इस सिंड्रोम को ऑटिस्टिक डिसॉर्डर का सबसे हल्का रूप माना जाता है। इस सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति कभी कभार अपने व्यवहार से भले ही अजीब लग सकते हैं लेकिन, कुछ खास विषयों में इनकी रूचि बहुत अधिक हो सकती है। हालांकि इन लोगों में मानसिक या सामाजिक व्यवहार से जुड़ी कोई समस्या नहीं होती है।
3.पर्वेसिव डेवलपमेंट डिसॉर्डर: आमतौर पर इसे ऑटिज़्म का प्रकार नहीं माना जात इसे कभी-कभी एटिपिकल ऑटिज़्म या पीडीडी-एनओएस भी कहा जाता है। जो लोग ऑटिस्टिक डिसऑर्डर और कुछ एस्परगर सिंड्रोम के कुछ मानदंडों को चित्रित करते हैं, लेकिन दोनों में से किसी से पूरी तरह से नहीं, उनमें एटिपिकल ऑटिज़्म का डायग्नोसिस माना जाता है। इसके लक्षण ऑटिस्टिक डिसऑर्डर की तुलना में कम और हल्के होते हैं।
ऑटिज़्म का निदान-
ऑटिज़्म के निदान के लिए कोई विशिष्ट टेस्ट नहीं है। आमतौर पर, अभिभावकों को बच्चे के व्यवहार और उनके विकास पर ध्यान देने के लिए कहा जाता है। ताकि, डिसऑर्डर का पता लगाने में मदद हो। विशेषज्ञों द्वारा मरीज की देखने, सुनने, बोलने और मोटर कॉर्डिनेशन की क्षमता का आंकलन किया जाता है। बाल रोग विशेषज्ञ इस स्थिति के में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि ऑटिज्म के लक्षण बचपन से ही शुरू हो जाते हैं। बच्चों को आमतौर पर बहुत छोटी उम्र से ही नियमित परामर्श के लिए ले जाया जाता है। इस तरह के परामर्श के दौरान, माता-पिता द्वारा सामान्य ऑब्जरवेशन और अवलोकन यह निर्धारित करने में मदद करते हैं कि क्या बच्चा इस स्थिति से पीड़ित है।कई मामलों में यह निर्धारित करना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि ऐसे उदाहरण हैं जहां ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों में कई लक्षण विकसित नहीं होते हैं।
कुछ ऑटिस्टिक बच्चों में उत्कृष्ट बौद्धिक क्षमता भी होती है। साथ ही, ऑटिज्म के लक्षणों को कुछ अन्य बीमारियों के लक्षणों के रूप में गलत समझा जाना आम बात है। निदान के दौरान इन फैक्टर्स को ध्यान में रखा जाना चाहिए। अभी तक ऑटिज्म के स्पष्ट कारण ज्ञात नहीं है इसीलिए चिकित्सा विज्ञान में इस बीमारी के लिए कोई चिकित्सीय परीक्षण उपलब्ध नहीं हैं।
ऑटिज़्म का उपचार-
वर्तमान में ऑटिज़्म के लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। हालांकि, स्टडीज़ में ऐसे संकेत दिए गए हैं जिसमें बचपन में ही इंटरवेंशनल ट्रीटमेंट सर्विसेज़ की मदद से ऑटिस्टिक बच्चों को पढ़ने-लिखने जैसी ज़रूरी कौशल सीखने में सहायता मिल सके। इसमें एजुकेशनल प्रोग्राम और बिहेवियरल थेरेपी के साथ-साथ ऐसे स्किल्स ओरिएंटेड ट्रेनिंग सेशन्स भी कराए जाते हैं जो बच्चों को बोलना, सामाजिक व्यवहार और सकारात्मक व्यवहार सीखने में मदद करते हैं। चूंकि, हर बच्चे में ऑटिज़्म के लक्षण अलग अलग होते हैं, इसलिए हर बच्चे को विशेष उपचार देने से ही बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। ऑटिज़्म के मुख्य लक्षणों का इलाज करने में दवाइयां कारगार नहीं होती हैं। लेकिन वे बेचैनी, डिप्रेशन, सनकी और जुनूनी व्यवहार को नियंत्रित करने में मदद कर सकती हैं, जो आमतौर पर ऑटिज्म के मरीजों में देखी जाती है। डॉक्टर ऑटिज़्म के मरीजों को निम्न दवाइयों के सेवन की सलाह भी दे सकते हैं-
एंटी-एंग्जायटी दवाइयां (बेचैनी वाले व्यवहार को कंट्रोल करने के लिए)
चिड़चिड़ापन, गुस्सा और बार-बार एक जैसा व्यवहार दोहराने आदि से राहत के लिए एंटीसायकोटिक दवाइयां दी जाती हैं।अशांत और बेचेनीभरे व्यवहार से राहत के लिए सेंट्रल नर्वस सिस्टम स्टिमुलैंट्स दवा दी जाती हैं
डिप्रेशन और बार-बार दोहरानेवाले व्यवहार से राहत के लिए एंटीडिप्रेसेंट्स दवा दी जाती हैं।
ऑटिज़्म के उपचार में विभिन्न थेरपीज़ सर्वाधिक कारगर सिद्ध होती हैं। इसके उपचार हेतु कराइ जाने वाली मुख्य थेरेपी हैं-
- स्पीच थेरेपी: इस थेरेपी में ऐसी तकनीकें शामिल हैं जो ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों को उन्हें कुशलता से व्यक्त करने में मदद करती हैं। यह बच्चों की दूसरों के साथ बातचीत करने की क्षमता में सुधार करता है। स्पीच थेरेपी मौखिक संचार तक सीमित नहीं है। इसमें व्यक्ति को चित्रों, इशारों और लेखन के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करना सिखाना भी शामिल है।
- ऑक्यूपेशनल थेरेपी: इस थेरेपी में ऐसी तकनीकें शामिल हैं जो ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों को उन्हें कुशलता से व्यक्त करने में मदद करती हैं। यह बच्चों की दूसरों के साथ बातचीत करने की क्षमता में सुधार करता है। स्पीच थेरेपी मौखिक संचार तक सीमित नहीं है। इसमें व्यक्ति को चित्रों, इशारों और लेखन के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करना सिखाना भी शामिल है।
- एप्लाइड बेहेवियर एनालिसिस: इस थेरेपी में पहला कदम ऑटिज्म से पीड़ित व्यक्तियों के व्यवहार का विश्लेषण करना है। उसके बाद, किसी भी नकारात्मक या संभावित हानिकारक व्यवहार को धीरे-धीरे हटा दिया जाता है और सकारात्मक व्यवहार को सकारात्मक सुदृढीकरण के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाता है, अर्थात सकारात्मक व्यवहार के लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। यदि व्यक्ति बार-बार चिड़चिड़े और उत्तेजित होने लगता है तो क्रोध प्रबंधन भी महत्वपूर्ण है।
यह एक सनातन सत्य हैं कि ऑटिज़्म जीवनभर रहनेवाली एक समस्या है। ऐसे में बच्चे को हमेशा विशेष सहयोग और सपोर्ट की ज़रूरत पड़ सकती है। हालांकि, उम्र बढ़ने के साथ ऑटिज़्म के लक्षण कम होने लगते हैं। जिससे, वह आगे चलकर सामान्य लोगों की तरह जीवन जी पाते हैं। इसलिए ऑटिस्टिक बच्चे के माता-पिता को बच्चे की बदलती ज़रूरतों के साथ तालमेल बिठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेखिका : नूपुर चौहान , कानपूर , उत्तर प्रदेश
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